ये सर-ब-मोहर बोतलें हैं जो शराब की
रातें हैं उन में बंद हमारी शबाब की
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वो हों मुट्ठी में उन की दिल हो हम हों
दर खुला सुब्ह को पौ फटते ही मय-ख़ाने का
कहती है ऐ 'रियाज़' दराज़ी ये रीश की
अल्लाह-रे नाज़ुकी कि जवाब-ए-सलाम में
वा'दा था जिस का हश्र में वो बात भी तो हो
क्या मज़ा देती है बिजली की चमक मुझ को 'रियाज़'
कली चमन में खिली तो मुझे ख़याल आया
हम ने देखा तरफ़-ए-मय-कदा जाते थे 'रियाज़'
मुझ को न दिल पसंद न दिल की ये ख़ू पसंद
पर्दे पर्दे में ये कर लेती हैं राहें क्यूँकर
दिल-जलों से दिल-लगी अच्छी नहीं
न तारे अफ़्शाँ न कहकशाँ है नमूना हँसती हुई जबीं का