वस्ल की रात के सिवा कोई शाम
साथ ले कर सहर नहीं आती
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ज़रूर पाँव में अपने हिना वो मल के चले
ये सुन के आज हश्र में वो बात भी तो हो
कहना किसी का सुब्ह-ए-शब-ए-वस्ल नाज़ से
बाम पर आए कितनी शान से आज
उस हुस्न का शैदा हूँ उस हुस्न का दीवाना
वो जोबन बहुत सर उठाए हुए हैं
न आया हमें इश्क़ करना न आया
आफ़त हमारी जान को है बे-क़रार दिल
पीरी में 'रियाज़' अब भी जवानी के मज़े हैं
गुलों के पर्दे में शक्लें हैं मह-जबीनों की
नज़र आती है दूर की सूरत
मैं उठा रक्खूँ न कुछ इन के लिए