उठता है एक पाँव तो थमता है एक पाँव
नक़्श-ए-क़दम की तरह कहाँ घर बनाएँ हम
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'रियाज़' इक चुलबुला सा दिल हो हम हों
इतनी पी है कि ब'अद-ए-तौबा भी
गुलों के पर्दे में शक्लें हैं मह-जबीनों की
मर गए फिर भी तअल्लुक़ है ये मय-ख़ाने से
जो हम आए तो बोतल क्यूँ अलग पीर-ए-मुग़ाँ रख दी
ये गवारा कि मिरा दस्त-ए-तमन्ना बाँधे
ये कहाँ लगी ये कहाँ लगी जो क़फ़स से शोर-ए-फ़ुग़ाँ उठा
इश्क़ में दिल-लगी सी रहती है
रूठे हुए कि अपने ज़रा अब मनाए ज़ुल्फ़
मतलब की बात शक्ल से पहचान जाइए
कहाँ ये बात हासिल है तिरी मस्जिद को ऐ ज़ाहिद
हिन्दोस्ताँ में धूम है किस की ज़बान की