शोख़ी से हर शगूफ़े के टुकड़े उड़ा दिए
जिस ग़ुंचे पर निगाह पड़ी दिल बना दिया
Faiz Ahmad Faiz
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मेरे घर में ग़ैर के डर से कभी छुप जाइए
ये मय-कदा है कि मस्जिद ये आब है कि शराब
ये सर-ब-मोहर बोतलें हैं जो शराब की
मेरे आग़ोश में यूँही कभी आ जा तू भी
अहल-ए-हरम से कह दो कि बिगड़ी नहीं है बात
ज़रूर पाँव में अपने हिना वो मल के चले
है भी कुछ या नहीं मैं हाथ लगा कर देखूँ
जो हम आए तो बोतल क्यूँ अलग पीर-ए-मुग़ाँ रख दी
कोई मुँह चूम लेगा इस नहीं पर
क्या मज़ा देती है बिजली की चमक मुझ को 'रियाज़'
घर में पहुँचा था कि आई नज्द से आवाज़-ए-क़ैस
हिन्दोस्ताँ में धूम है किस की ज़बान की