शेर-ए-तर मेरे छलकते हुए साग़र हैं 'रियाज़'
फिर भी सब पूछते हैं आप ने मय पी कि नहीं
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नासेह के सर पर एक लगाई तड़ाक़ से
हम को 'रियाज़' जानते हैं मानते हैं सब
ये सीधे जो अब ज़ुल्फ़ों वाले हुए हैं
ये काफ़िर बुत जिन्हें दावा है दुनिया में ख़ुदाई का
अगर उन के लब पर गिला है किसी का
नज्द में क्या क़ैस का है उर्स आज
सय्याद तिरा घर मुझे जन्नत सही मगर
वस्ल की रात के सिवा कोई शाम
ख़ुदा के हाथ है बिकना न बिकना मय का ऐ साक़ी
निगह-ए-नाज़ इधर है निगह-ए-शौक़ उधर
दर्द हो तो दवा करे कोई
शोख़ी से हर शगूफ़े के टुकड़े उड़ा दिए