शैख़-जी गिर गए थे हौज़ में मयख़ाने के
डूब कर चश्मा-ए-कौसर के किनारे निकले
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नहीं छुपता तिरे इ'ताब का रंग
आबाद करें बादा-कश अल्लाह का घर आज
ख़ुदा आबाद रक्खे मय-कदे को
उन के होते कौन देखे दीदा-ओ-दिल का बिगाड़
बहार आते ही फूलों ने छावनी छाई
कोई मुँह चूम लेगा इस नहीं पर
पर्दे पर्दे में ये कर लेती हैं राहें क्यूँकर
बाम पर आए कितनी शान से आज
बहुत ही पर्दे में इज़हार-ए-आरज़ू करते
मतलब की बात शक्ल से पहचान जाइए
रंग पर कल था अभी लाला-ए-गुलशन कैसा
मय-ख़ाने में मज़ार हमारा अगर बना