सय्याद तेरा घर मुझे जन्नत सही मगर
जन्नत से भी सिवा मुझे राहत चमन में थी
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ख़ुदा के हाथ है बिकना न बिकना मय का ऐ साक़ी
ये बला मेरे सर चढ़ी ही नहीं
नज़र आती है दूर की सूरत
पाऊँ तो इन हसीनों का मुँह चूम लूँ 'रियाज़'
रहे हम आशियाँ में भी तो बर्क़-ए-आशियाँ हो कर
छुपता नहीं छपाने से आलम उभार का
इस से अच्छे दश्त-ए-सहरा इस से अच्छे गर्द-बाद
'रियाज़' तौबा न टूटे न मय-कदा छूटे
ये सर-ब-मोहर बोतलें हैं जो शराब की
अब मुजरिमान-ए-इश्क़ से बाक़ी हूँ एक मैं
अगर उन के लब पर गिला है किसी का
जाने वाले न हम उस कूचे में आने वाले