रोते जो आए थे रुला के गए
इब्तिदा इंतिहा को रोते हैं
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आरज़ू भी तो कर नहीं आती
वो हों मुट्ठी में उन की दिल हो हम हों
डर है न दुपट्टा कहीं सीने से सरक जाए
परा बाँधे सफ़-ए-मिज़्गाँ खड़ी है
मर गए फिर भी तअल्लुक़ है ये मय-ख़ाने से
निगह-ए-नाज़ इधर है निगह-ए-शौक़ उधर
कोई पूछे न हम से क्या हुआ दिल
देखिएगा सँभल कर आईना
पाऊँ तो इन हसीनों का मुँह चूम लूँ 'रियाज़'
अब मुजरिमान-ए-इश्क़ से बाक़ी हूँ एक मैं
रहमत से 'रियाज़' उस की थे साथ फ़रिश्ते दो
वा'दा था जिस का हश्र में वो बात भी तो हो