'रियाज़' आने में है उन के अभी देर
चलो हो आएँ मर्ग-ए-ना-गहाँ तक
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न आया हमें इश्क़ करना न आया
इतनी पी है कि ब'अद-ए-तौबा भी
मय-ख़ाने में मज़ार हमारा अगर बना
ये सुन के आज हश्र में वो बात भी तो हो
ऐसी ही इंतिज़ार में लज़्ज़त अगर न हो
मेहंदी लगाए बैठे हैं कुछ इस अदा से वो
ये कोई बात है सुनता न बाग़बाँ मेरी
शोख़ी से हर शगूफ़े के टुकड़े उड़ा दिए
वस्ल की रात के सिवा कोई शाम
नज़र आती है दूर की सूरत
हम बंद किए आँख तसव्वुर में पड़े हैं
हाथ रक्खा मैं ने सोते में कहाँ