पीरी में 'रियाज़' अब भी जवानी के मज़े हैं
ये रीश-ए-सफ़ेद और मय-ए-होश-रुबा सुर्ख़
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पैमाने में वो ज़हर नहीं घोल रहे थे
मिरे घर मिस्ल तबर्रुक के ये सामाँ निकला
तेज़ है पीने में हो जाएगी आसानी मुझे
पाऊँ तो उन हसीनों के मुँह चूम लूँ 'रियाज़'
जी उठे हश्र में फिर जी से गुज़रने वाले
नज़र आती है दूर की सूरत
वस्ल की रात के सिवा कोई शाम
धोके से पिला दी थी उसे भी कोई दो घूँट
बाला-ए-बाम ग़ैर है में आस्तान पर
घर में पहुँचा था कि आई नज्द से आवाज़-ए-क़ैस
जवानी मय-ए-अरग़वानी से अच्छी
उठवाओ मेज़ से मय-ओ-साग़र 'रियाज़' जल्द