मिरे घर मिस्ल तबर्रुक के ये सामाँ निकला
आस्तीं क़ैस की फ़रहाद का दामाँ निकला
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मेरे आग़ोश में यूँही कभी आ जा तू भी
जिस दिन से हराम हो गई है
जो पिलाए वो रहे यारब मय-ओ-साग़र से ख़ुश
हाथ रक्खा मैं ने सोते में कहाँ
न आया हमें इश्क़ करना न आया
कली चमन में खिली तो मुझे ख़याल आया
छुपता नहीं छपाने से आलम उभार का
जो हम आए तो बोतल क्यूँ अलग पीर-ए-मुग़ाँ रख दी
गुलों के पर्दे में शक्लें हैं मह-जबीनों की
कह के मैं दिल की कहानी किस क़दर खोया गया
पाया जो तुझे तो खो गए हम
मैं उठा रक्खूँ न कुछ इन के लिए