मर गया हूँ पे तअ'ल्लुक़ है ये मय-ख़ाने से
मेरे हिस्से की छलक जाती है पैमाने से
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मय-ख़ाने में क्यूँ याद-ए-ख़ुदा होती है अक्सर
आईना देखते ही वो दीवाना हो गया
दर्द हो तो दवा करे कोई
घर में पहुँचा था कि आई नज्द से आवाज़-ए-क़ैस
ये कोई बात है सुनता न बाग़बाँ मेरी
मतलब की बात शक्ल से पहचान जाइए
इस वास्ते कि आव-भगत मय-कदे में हो
छुपता नहीं छपाने से आलम उभार का
रूठे हुए कि अपने ज़रा अब मनाए ज़ुल्फ़
हंस के पैमाना दिया ज़ालिम ने तरसाने के बा'द
मिरे घर मिस्ल तबर्रुक के ये सामाँ निकला
ये सीधे जो अब ज़ुल्फ़ों वाले हुए हैं