क्या मज़ा देती है बिजली की चमक मुझ को 'रियाज़'
मुझ से लिपटे हैं मिरे नाम से डरने वाले
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डराता है हमें महशर से तू वाइज़ अरे जा भी
हम ने देखा तरफ़-ए-मय-कदा जाते थे 'रियाज़'
वो बोले वस्ल की हाँ है तो प्यारी प्यारी रात
ग़रीब हम हैं ग़रीबों की भी ख़ुशी हो जाए
अब मुजरिमान-ए-इश्क़ से बाक़ी हूँ एक मैं
घर में पहुँचा था कि आई नज्द से आवाज़-ए-क़ैस
क्या शराब-ए-नाब न पस्ती से पाया है उरूज
रूठे हुए कि अपने ज़रा अब मनाए ज़ुल्फ़
घर में दस हों तो ये रौनक़ नहीं होगी घर में
नज्द में क्या क़ैस का है उर्स आज
कह के मैं दिल की कहानी किस क़दर खोया गया
दर्द हो तो दवा करे कोई