इस से अच्छे दश्त-ए-सहरा इस से अच्छे गर्द-बाद
आलम-ए-वहशत में मेरा घर कोई घर रह गया
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क्या मज़ा देती है बिजली की चमक मुझ को 'रियाज़'
काफ़िर बुतों के नाम हों क्यूँकर तमाम हिफ़्ज़
हम जानते हैं लुत्फ़-ए-तक़ाज़ा-ए-मय-फ़रोश
कह के मैं दिल की कहानी किस क़दर खोया गया
सय्याद तिरा घर मुझे जन्नत सही मगर
नासेह के सर पर एक लगाई तड़ाक़ से
ज़र्फ़-ए-वज़ू है जाम है इक ख़म है इक सुबू
होगी वो दिल में जो ठानी जाएगी
नज्द में क्या क़ैस का है उर्स आज
ये मय-कदा है कि मस्जिद ये आब है कि शराब
उस हुस्न का शैदा हूँ उस हुस्न का दीवाना
जो पिलाए वो रहे यारब मय-ओ-साग़र से ख़ुश