हम ने देखा तरफ़-ए-मय-कदा जाते थे 'रियाज़'
इक असा थामे अबा पहने अमामा बाँधे
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इस वास्ते कि आव-भगत मय-कदे में हो
सुब्ह है रात कहाँ अब वो कहाँ रात की बात
जवानी मय-ए-अरग़वानी से अच्छी
ग़रीब हम हैं ग़रीबों की भी ख़ुशी हो जाए
ऐसी ही इंतिज़ार में लज़्ज़त अगर न हो
दर्द हो तो दवा करे कोई
क्या शराब-ए-नाब न पस्ती से पाया है उरूज
'रियाज़' आने में है उन के अभी देर
मुँह दिखा कर मुँह छुपाना कुछ नहीं
निगह-ए-नाज़ इधर है निगह-ए-शौक़ उधर
रूठे हुए कि अपने ज़रा अब मनाए ज़ुल्फ़
ये सीधे जो अब ज़ुल्फ़ों वाले हुए हैं