हिन्दोस्ताँ में धूम है किस की ज़बान की
वो कौन है 'रियाज़' को जो जानता नहीं
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ख़ुदा के हाथ है बिकना न बिकना मय का ऐ साक़ी
ये कहाँ लगी ये कहाँ लगी जो क़फ़स से शोर-ए-फ़ुग़ाँ उठा
ख़ुदा आबाद रक्खे मय-कदे को
'रियाज़' एहसास-ए-ख़ुद्दारी पे कितनी चोट लगती है
कुछ भी हो 'रियाज़' आँख में आँसू नहीं आते
ले गया घर से उन्हें ग़ैर के घर का ता'वीज़
लुट गई शब को दो शय जिस को छुपाते थे बहुत
शोख़ी से हर शगूफ़े के टुकड़े उड़ा दिए
पाया जो तुझे तो खो गए हम
घर में पहुँचा था कि आई नज्द से आवाज़-ए-क़ैस
मुँह ज़ेर-ए-ताक खोला वाइज़ बहुत ही चूका
उफ़ रे उभार उफ़ रे ज़माना उठान का