है भी कुछ या नहीं मैं हाथ लगा कर देखूँ
हाथ उठाए तो ज़रा अपनी कमर से कोई
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बड़े पाक तीनत बड़े साफ़ बातिन
कुछ भी हो 'रियाज़' आँख में आँसू नहीं आते
जवानी मय-ए-अरग़वानी से अच्छी
कहाँ ये बात हासिल है तिरी मस्जिद को ऐ ज़ाहिद
फ़रियाद-ए-जुनूँ और है बुलबुल की फ़ुग़ाँ और
अज़ाँ का काम चल जाए जो नाक़ूस-ए-बरहमन से
इस हज में वो बुत भी साथ होगा
पर्दे पर्दे में ये कर लेती हैं राहें क्यूँकर
उफ़ रे उभार उफ़ रे ज़माना उठान का
न तारे अफ़्शाँ न कहकशाँ है नमूना हँसती हुई जबीं का
रंग पर कल था अभी लाला-ए-गुलशन कैसा
'रियाज़' इक चुलबुला सा दिल हो हम हों