आबाद करें बादा-कश अल्लाह का घर आज
दन जुमअ' का है बंद है मय-ख़ाने का दर आज
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कहना किसी का सुब्ह-ए-शब-ए-वस्ल नाज़ से
ज़र्फ़-ए-वज़ू है जाम है इक ख़म है इक सुबू
बहुत ही पर्दे में इज़हार-ए-आरज़ू करते
रहे हम आशियाँ में भी तो बर्क़-ए-आशियाँ हो कर
देखिएगा सँभल कर आईना
ले गया घर से उन्हें ग़ैर के घर का ता'वीज़
दुनिया से अलग हम ने मयख़ाने का दर देखा
रूठे हुए कि अपने ज़रा अब मनाए ज़ुल्फ़
अच्छी पी ली ख़राब पी ली
ये कहाँ से हम गए हैं कहाँ कहें क्या तिरी तग-ओ-ताज़ में
पाऊँ तो इन हसीनों का मुँह चूम लूँ 'रियाज़'
मेरी सज-धज तो कोई इश्क़-ए-बुताँ में देखे