ये कहाँ से हम गए हैं कहाँ कहें क्या तिरी तग-ओ-ताज़ में
ये कहाँ से हम गए हैं कहाँ कहें क्या तिरी तग-ओ-ताज़ में
कि ये आसमान-ओ-ज़मीं जहाँ न नशेब में न फ़राज़ में
तू दरून-ए-ख़ाना बरून-ए-दर तू हज़ार पर्दों में जल्वा-गर
अरे ओ हक़ीक़त-ए-पर्दा-वर तिरी शोख़ियाँ में मजाज़ में
वही आए अर्श से फ़र्श तक वही छाए फ़र्श से अर्श तक
मिले ऐसे ज़र्रे हज़ार-हा हमें ख़ाक-ए-राह-ए-मजाज़ में
कहीं तेज़ है कहीं नर्म है यही आँच मुतरिब-ए-ख़ुश-नवा
मिरे नाले में तिरे नग़्मे में मिरे सोज़ में तिरे साज़ में
तिरे सज्दे में वो मज़ा मिला कि तड़प के सीने से आ रहा
कोई दाग़ है कि है दिल मिरा ये मिरी जबीन-ए-नियाज़ में
ये उड़ाएँगे कभी रंग भी ये दिखाएँगे कभी रंग भी
यही लाएँगे कभी रंग भी जो रंगें हैं रंग-ए-मजाज़ में
घड़ी जिस की हश्र का एक दिन शब-गोर जिस का हर एक पल
वो मज़े हैं हसरत-ए-मर्ग में जो ख़िज़्र की उम्र-ए-दराज़ में
उसे लाग इश्क़ की कहते हैं उसे आग इश्क़ की कहते हैं
न जुनून है ये जुनून में न कोई ये राज़ है राज़ में
जिन्हें लोग कहते हैं दुज़्द-ए-मय वो ख़ुदा-परस्त 'रियाज़' हैं
ये सुना है कल कि जनाब ही पस-ए-ख़ुम थे महव नमाज़ में
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