उन के होते कौन देखे दीदा-ओ-दिल का बिगाड़
उन के होते कौन देखे दीदा-ओ-दिल का बिगाड़
पड़ गया दोनों में फ़र्त-ए-रश्क से कैसा बिगाड़
उस की महफ़िल का मुरक़्क़ा' खींच ऐ मानी मगर
इस मुरक़्क़े में ज़रा तू ग़ैर का चेहरा बिगाड़
तेरे झुकने से झुके हैं दिल के लेने को हसीं
कम लगा कर दाम ऐ ज़ालिम न तू सौदा बिगाड़
दुख़्त-ए-रज़ को शक्ल तेरी देख कर नफ़रत न हो
तल्ख़ी-ए-मय से अरे ज़ाहिद न मुँह इतना बिगाड़
हाँ वही फिर का'बा बन जाएगा ऐ शेख़-ए-हरम
बुत-कदे का पहले नक़्शा खींच फिर नक़्शा बिगाड़
हो तअ'ल्लुक़ गुल-रुख़ों से तो मज़ा हर बात में
क्या बनावट क्या खिंचावट क्या लगावट क्या बिगाड़
मेरे हाल-ए-ज़ार पर आ जाए तुझ को आप रहम
ओ बनाने वाले मेरे मुझ को तू इतना बिगाड़
कोई हों काफ़िर हों या अल्लाह वाले ऐ 'रियाज़'
चार दिन की ज़िंदगानी में किसी से क्या बिगाड़
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