मैं उठा रक्खूँ न कुछ इन के लिए
मैं उठा रक्खूँ न कुछ इन के लिए
ये हसीं मिल जाएँ दो दिन के लिए
वादा-ए-फ़र्दा के सच्चे मिल गए
अब उठा रक्खूँ मैं किस दिन के लिए
कल के वा'दे पर न दे वो मय-फ़रोश
जिस ने तोड़े हम से गिन गिन के लिए
क़ोरमा मुर्ग़-ए-सहर का वस्ल में
भेज देता हूँ मोअज़्ज़िन के लिए
ये न कहने को हो बे-गिनती दिए
मैं ने बोसे उन के गिन गिन के लिए
मुँह झुलसने को ख़िज़ाँ का अंदलीब
आशियाँ में बैठे हैं तिनके लिए
मय-कशो वाइ'ज़ मिरे सर हो गया
कोई तदबीर इस पढ़े जिन के लिए
ये 'रियाज़' उन के बहुत थे मुँह लगे
उठ रहा क्या आज कुछ दिन के लिए
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