जो पिलाए वो रहे यारब मय-ओ-साग़र से ख़ुश
जो पिलाए वो रहे यारब मय-ओ-साग़र से ख़ुश
ख़ुश रहे पीर-ए-मुग़ाँ जाते हैं उस के दर से ख़ुश
संग-ए-ख़ूँ-आलूदा को समझे हैं ये गुलशन का फूल
तोड़ कर सर तेरे दीवाने हैं क्या पत्थर से ख़ुश
उस गली के रहने वाले भी मज़े के लोग हैं
फ़ित्ना-ए-महशर से ख़ुश हंगामा-ए-मशहर से ख़ुश
यूँ गले से क्यूँ लगाता सख़्त-जानों को कोई
हम गले मिल कर हुए क्या क्या तिरे ख़ंजर से ख़ुश
ख़ुम के ख़ुम भर भर के जाएँ कम न हो मय बूँद-भर
ज़ाहिद-ओ-हम हैं तुम्हारे चश्मा-ए-कौसर से ख़ुश
ख़ून पानी एक मेरा हो गया उन के लिए
अपने ज़ख़्म-ए-दिल से ख़ुश हों अपने चश्म-ए-तर से ख़ुश
दिल में घर करती है वो काफ़िर मिज़ा काफ़िर निगह
मैं तिरे पैकाँ से ख़ुश हूँ मैं तिरे नश्तर से ख़ुश
ख़ाना बाग़-ए-ग़ैर में थे या खुले मैदान में
वो कहीं से आए हों आए हैं कुछ बाहर से ख़ुश
मय-कदे में आ के पीते हैं पिलाते हैं 'रियाज़'
कह रही है वज़्अ उन की हैं ये अपने घर से ख़ुश
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