उदास उदास थे हम उस को इक ज़माना हुआ
उदास उदास थे हम उस को इक ज़माना हुआ
ग़ज़ल का आइना देखा तो मुस्कुराना हुआ
न जाने कितने ही ख़बरों ने ख़ुद-कुशी कर ली
चलो कि आज का अख़बार भी पुराना हुआ
फिर आज बीते हुए मौसमों की याद आई
फिर आज रेंगते लम्हों से दोस्ताना हुआ
ये बंद कमरे की तन्हाइयों का ग़ुल था कि फिर
हमारे वहम पर इक वार क़ातिलाना हुआ
वो फ़ाख़्ता थी जिसे गोलियों ने भून दिया
ये क़त्ल सेहन-ए-गुलिस्ताँ में जारेहाना हुआ
हमारा शहर रहा सिर्फ़ वलवलों का ही शहर
उसे नसीब कहाँ ज़लज़ले उगाना हुआ
वो मुंहदिम सही दीवार तो मिली ऐ 'रिंद'
उसी के साए में तस्कीन का ठिकाना हुआ
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