ज़ुल्फ़ों की तरह उम्र बसर हो गई अपनी
हम ख़ाना-ब-दोशों को कहीं घर नहीं मिलता
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मज़ा पड़ा है क़नाअत का अहद-ए-तिफ़्ली से
इमसाल फ़स्ल-ए-गुल में वो फिर चाक हो गए
तौबा का पास रिंद-ए-मय-आशाम हो चुका
अपने मरने का अगर रंज मुझे है तो ये है
इक परी का फिर मुझे शैदा किया
क्या मिला अर्ज़-ए-मुद्दआ कर के
नहीं क़ौल से फ़ेल तेरे मुताबिक़
काफ़िर हूँ न फूँकूँ जो तिरे काबे में ऐ शैख़
साइलाना उन के दर पर जब मिरा जाना हुआ
उल्फ़त न करूँगा अब किसी की
किसी का कोई मर जाए हमारे घर में मातम है