टूटे बुत मस्जिद बनी मिस्मार बुत-ख़ाना हुआ
जब तो इक सूरत भी थी अब साफ़ वीराना हुआ
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नहीं क़ौल से फ़ेल तेरे मुताबिक़
ऐ शब-ए-फ़ुर्क़त न कर मुझ पर अज़ाब
मुझे दे के दिल जान खोना पड़ा है
रक्खो ख़िदमत में मुझ से काम तो लो
तू आप को पोशीदा ओ इख़्फ़ा न समझना
हैं ये सारे जीते-जी के वास्ते
पास-ए-दीं कुफ़्र में भी था मलहूज़
न अंगिया न कुर्ती है जानी तुम्हारी
दीवानों से कह दो कि चली बाद-ए-बहारी
फिर वही कुंज-ए-क़फ़स है वही सय्याद का घर
गले लगाएँ बलाएँ लें तुम को प्यार करें
इक परी का फिर मुझे शैदा किया