था मुक़द्दम इश्क़-ए-बुत इस्लाम पर तिफ़्ली में भी
या सनम कह कर पढ़ा मकतब में बिस्मिल्लाह को
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दीद-ए-लैला के लिए दीदा-ए-मजनूँ है ज़रूर
न अंगिया न कुर्ती है जानी तुम्हारी
रक्खो ख़िदमत में मुझ से काम तो लो
मुज़्दा-बाद ऐ बादा-ख़्वारो दौर-ए-वाइज़ हो चुका
हों वो काफ़िर कि मुसलामानों ने अक्सर मुझ को
हैं ये सारे जीते-जी के वास्ते
नहीं क़ौल से फ़ेल तेरे मुताबिक़
ज़माने में वो मह-लक़ा एक है
टूटे बुत मस्जिद बनी मिस्मार बुत-ख़ाना हुआ
मुँह न ढाँको अब तो सूरत देख ली
हिज्र की शब हाथ में ले कर चराग़-ए-माहताब
बरहना देख कर आशिक़ में जान-ए-ताज़ा आती है