रुतबा-ए-कुफ़्र है किस बात में कम ईमाँ से
शौकत-ए-काबा तो है शान-ए-कलीसा देखो
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नाज़-ए-बेजा उठाइए किस से
मय पिला ऐसी कि साक़ी न रहे होश मुझे
किसी का कोई मर जाए हमारे घर में मातम है
नहीं क़ौल से फ़ेल तेरे मुताबिक़
छुप के घर ग़ैर के जाया न करो
टूटे बुत मस्जिद बनी मिस्मार बुत-ख़ाना हुआ
उल्फ़त न करूँगा अब किसी की
साइलाना उन के दर पर जब मिरा जाना हुआ
पास-ए-दीं कुफ़्र में भी था मलहूज़
क्यूँ-कर न लाए रंग गुलिस्ताँ नए नए
मज़ा पड़ा है क़नाअत का अहद-ए-तिफ़्ली से
क़ैस समझा मिरी लैला की सवारी आई