रिंदान-ए-इश्क़ छुट गए मज़हब की क़ैद से
घंटा रहा गले में न ज़ुन्नार रह गया
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मय पिला ऐसी कि साक़ी न रहे होश मुझे
हिज्र की शब हाथ में ले कर चराग़-ए-माहताब
क्या सुन चुके हैं आमद-ए-फ़स्ल-ए-बहार हाथ
दीवानों से कह दो कि चली बाद-ए-बहारी
तौबा का पास रिंद-ए-मय-आशाम हो चुका
लैला मजनूँ का रटती है नाम
ऐ जुनूँ तू ही छुड़ाए तो छुटूँ इस क़ैद से
चलती रही उस कूचे में तलवार हमेशा
काफ़िर हूँ न फूँकूँ जो तिरे काबे में ऐ शैख़
हों वो काफ़िर कि मुसलामानों ने अक्सर मुझ को
हैरान सी है भचक रही है
हूर पर आँख न डाले कभी शैदा तेरा