क़ैस समझा मिरी लैला की सवारी आई
दूर से जब कोई सहरा में बगूला उट्ठा
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बुत करें आरज़ू ख़ुदाई की
मुझ बला-नोश को तलछट भी है काफ़ी साक़ी
अगरी का है गुमाँ शक है मलागीरी का
टूटे बुत मस्जिद बनी मिस्मार बुत-ख़ाना हुआ
वक़ार-ए-शाह-ए-ज़विल-इक्तदार देख चुके
लाला-रूयों से कब फ़राग़ रहा
मुज़्दा-बाद ऐ बादा-ख़्वारो दौर-ए-वाइज़ हो चुका
तोहमत-ए-हसरत-ए-पर्वाज़ न मुझ पर बाँधे
न अंगिया न कुर्ती है जानी तुम्हारी
छुप के घर ग़ैर के जाया न करो
दीद-ए-लैला के लिए दीदा-ए-मजनूँ है ज़रूर
उदास देख के मुझ को चमन दिखाता है