फिर वही कुंज-ए-क़फ़स है वही सय्याद का घर
और दो रोज़ हवा बाग़ में खा ले बुलबुल
Habib Jalib
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नीस्त बे-यार मुझ को हस्ती है
रुतबा-ए-कुफ़्र है किस बात में कम ईमाँ से
गले लगाएँ बलाएँ लें तुम को प्यार करें
दीद-ए-गुलज़ार-ए-जहाँ क्यूँ न करें सैर तो है
बुत करें आरज़ू ख़ुदाई की
करीम जो मुझे देता है बाँट खाता हूँ
रास्ता रोक के कह लूँगा जो कहना है मुझे
वादे पे तुम न आए तो कुछ हम न मर गए
बरहना देख कर आशिक़ में जान-ए-ताज़ा आती है
सदमे गुज़रे ईज़ा गुज़री
जलन दिल की लिक्खें जो हम दिल-जले
न अंगिया न कुर्ती है जानी तुम्हारी