फिर वही कुंज-ए-क़फ़स है वही सय्याद का घर
चार दिन और हवा बाग़ की खा ले बुलबुल
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चाँदनी रातों में चिल्लाता फिरा
इक परी का फिर मुझे शैदा किया
चढ़ी तेरे बीमार-ए-फ़ुर्क़त को तब है
आ अंदलीब मिल के करें आह-ओ-ज़ारियाँ
इमसाल फ़स्ल-ए-गुल में वो फिर चाक हो गए
वक़ार-ए-शाह-ए-ज़विल-इक्तदार देख चुके
खुली है कुंज-ए-क़फ़स में मिरी ज़बाँ सय्याद
मुज़्दा-बाद ऐ बादा-ख़्वारो दौर-ए-वाइज़ हो चुका
रिंदान-ए-इश्क़ छुट गए मज़हब की क़ैद से
तौबा का पास रिंद-ए-मय-आशाम हो चुका
मौत आ जाए क़ैद में सय्याद
उदास देख के मुझ को चमन दिखाता है