फेर लाता है ख़त-ए-शौक़ मिरा हो के तबाह
ज़ब्ह कर डालूँगा अब की जो कबूतर बहका
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ख़ाक छनवाती है दीवानों से अपने मुद्दतों
उल्फ़त न करूँगा अब किसी की
अपने मरने का अगर रंज मुझे है तो ये है
जलन दिल की लिक्खें जो हम दिल-जले
काबे को जाता किस लिए हिन्दोस्तान से मैं
इक परी का फिर मुझे शैदा किया
ऐ जुनूँ तू ही छुड़ाए तो छुटूँ इस क़ैद से
लाएगी गर्दिश में तुझ को भी मिरी आवारगी
पाँव के हाथ से गर्दिश ही रही मुझ को मुदाम
चढ़ी तेरे बीमार-ए-फ़ुर्क़त को तब है
ख़ामोश दाब-ए-इश्क़ को बुलबुल लिए हुए