पास-ए-दीं कुफ़्र में भी था मलहूज़
बुत को पूजा ख़ुदा ख़ुदा कर के
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नहीं क़ौल से फ़ेल तेरे मुताबिक़
काफ़िर हूँ न फूँकूँ जो तिरे काबे में ऐ शैख़
उदास देख के मुझ को चमन दिखाता है
दीद-ए-लैला के लिए दीदा-ए-मजनूँ है ज़रूर
ज़ुल्फ़ों की तरह उम्र बसर हो गई अपनी
करीम जो मुझे देता है बाँट खाता हूँ
ज़ुल्फ़ें छोड़ीं हैं कि जोड़ा उस ने छोड़ा साँप का
मुज़्दा-बाद ऐ बादा-ख़्वारो दौर-ए-वाइज़ हो चुका
तोहमत-ए-हसरत-ए-पर्वाज़ न मुझ पर बाँधे
हों वो काफ़िर कि मुसलामानों ने अक्सर मुझ को
मुझे दे के दिल जान खोना पड़ा है
आलम-पसंद हो गई जो बात तुम ने की