परों को खोल दे ज़ालिम जो बंद करता है
क़फ़स को ले के मैं उड़ जाऊँगा कहाँ सय्याद
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क़ैस समझा मिरी लैला की सवारी आई
तबीअ'त को होगा क़लक़ चंद रोज़
छुप के घर ग़ैर के जाया न करो
हैरान सी है भचक रही है
तौबा का पास रिंद-ए-मय-आशाम हो चुका
मय-कश हूँ वो कि पूछता हूँ उठ के हश्र में
चढ़ी तेरे बीमार-ए-फ़ुर्क़त को तब है
इश्क़ कुछ आप पे मौक़ूफ़ नहीं ख़ुश रहिए
मुज़्दा-बाद ऐ बादा-ख़्वारो दौर-ए-वाइज़ हो चुका
मुझ बला-नोश को तलछट भी है काफ़ी साक़ी
क्या मिला अर्ज़-ए-मुद्दआ कर के
पास-ए-दीं कुफ़्र में भी था मलहूज़