नाज़-ए-बेजा उठाइए किस से
अब न वो दिल न वो दिमाग़ रहा
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दिल-लगी ग़ैरों से बे-जा है मिरी जाँ छोड़ दे
उदास देख के मुझ को चमन दिखाता है
ज़ुल्फ़ें छोड़ीं हैं कि जोड़ा उस ने छोड़ा साँप का
काफ़िर हूँ न फूँकूँ जो तिरे काबे में ऐ शैख़
चढ़ी तेरे बीमार-ए-फ़ुर्क़त को तब है
मुझे दे के दिल जान खोना पड़ा है
था मुक़द्दम इश्क़-ए-बुत इस्लाम पर तिफ़्ली में भी
हूर पर आँख न डाले कभी शैदा तेरा
क्या मिला अर्ज़-ए-मुद्दआ कर के
रक्खो ख़िदमत में मुझ से काम तो लो
हम जो कहते हैं सरासर है ग़लत
तबीअ'त को होगा क़लक़ चंद रोज़