मुज़्दा-बाद ऐ बादा-ख़्वारो दौर-ए-वाइज़ हो चुका
मदरसे खोदे गए तामीर मय-ख़ाना हुआ
Habib Jalib
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आज इंकार न फ़रमाइए आप
मुँह न ढाँको अब तो सूरत देख ली
तौबा का पास रिंद-ए-मय-आशाम हो चुका
अगरी का है गुमाँ शक है मलागीरी का
किसी का कोई मर जाए हमारे घर में मातम है
ज़ुल्फ़ों की तरह उम्र बसर हो गई अपनी
ज़ुल्फ़ें छोड़ीं हैं कि जोड़ा उस ने छोड़ा साँप का
मज़ा पड़ा है क़नाअत का अहद-ए-तिफ़्ली से
रुतबा-ए-कुफ़्र है किस बात में कम ईमाँ से
बुत करें आरज़ू ख़ुदाई की
छुप के घर ग़ैर के जाया न करो
साइलाना उन के दर पर जब मिरा जाना हुआ