मज़ा पड़ा है क़नाअत का अहद-ए-तिफ़्ली से
मैं सेर हो के न पीता था शीर-ए-मादर को
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बुत करें आरज़ू ख़ुदाई की
पाँव के हाथ से गर्दिश ही रही मुझ को मुदाम
लैला मजनूँ का रटती है नाम
क्यूँ-कर न लाए रंग गुलिस्ताँ नए नए
दीवानों से कह दो कि चली बाद-ए-बहारी
ऐ जुनूँ तू ही छुड़ाए तो छुटूँ इस क़ैद से
आदमी पहचाना जाता है क़याफ़ा देख कर
साइलाना उन के दर पर जब मिरा जाना हुआ
ख़ाक छनवाती है दीवानों से अपने मुद्दतों
मौत आ जाए क़ैद में सय्याद
उदास देख के मुझ को चमन दिखाता है
लाएगी गर्दिश में तुझ को भी मिरी आवारगी