मय-कश हूँ वो कि पूछता हूँ उठ के हश्र में
क्यूँ जी शराब की हैं दुकानें यहाँ कहीं
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ज़ुल्फ़ों की तरह उम्र बसर हो गई अपनी
वक़ार-ए-शाह-ए-ज़विल-इक्तदार देख चुके
नीस्त बे-यार मुझ को हस्ती है
उदास देख के मुझ को चमन दिखाता है
रुतबा-ए-कुफ़्र है किस बात में कम ईमाँ से
बुत करें आरज़ू ख़ुदाई की
आँख से क़त्ल करे लब से जलाए मुर्दे
आफ़त शब-ए-तन्हाई की टल जाए तो अच्छा
हैं ये सारे जीते-जी के वास्ते
आलम-पसंद हो गई जो बात तुम ने की
मौत आ जाए क़ैद में सय्याद
तौबा का पास रिंद-ए-मय-आशाम हो चुका