मय पिला ऐसी कि साक़ी न रहे होश मुझे
एक साग़र से दो आलम हों फ़रामोश मुझे
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मज़ा पड़ा है क़नाअत का अहद-ए-तिफ़्ली से
ज़ुल्फ़ों की तरह उम्र बसर हो गई अपनी
अपने मरने का अगर रंज मुझे है तो ये है
चलती रही उस कूचे में तलवार हमेशा
शौक़-ए-नज़्ज़ारा-ए-दीदार में तेरे हमदम
परों को खोल दे ज़ालिम जो बंद करता है
सातों फ़लक किए तह-ओ-बाला निकल गया
नहीं क़ौल से फ़ेल तेरे मुताबिक़
हों वो काफ़िर कि मुसलामानों ने अक्सर मुझ को
उल्फ़त न करूँगा अब किसी की
लैला मजनूँ का रटती है नाम
ऐ शब-ए-फ़ुर्क़त न कर मुझ पर अज़ाब