लैला मजनूँ का रटती है नाम
दीवानी हुई है बक रही है
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Wasi Shah
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Allama Iqbal
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अगरी का है गुमाँ शक है मलागीरी का
गले लगाएँ बलाएँ लें तुम को प्यार करें
आदमी पहचाना जाता है क़याफ़ा देख कर
मुज़्दा-बाद ऐ बादा-ख़्वारो दौर-ए-वाइज़ हो चुका
दिल किस से लगाऊँ कहीं दिलबर नहीं मिलता
खुली है कुंज-ए-क़फ़स में मिरी ज़बाँ सय्याद
परों को खोल दे ज़ालिम जो बंद करता है
दीद-ए-गुलज़ार-ए-जहाँ क्यूँ न करें सैर तो है
साइलाना उन के दर पर जब मिरा जाना हुआ
हूर पर आँख न डाले कभी शैदा तेरा
इश्क़ कुछ आप पे मौक़ूफ़ नहीं ख़ुश रहिए