किसी का कोई मर जाए हमारे घर में मातम है
ग़रज़ बारह महीने तीस दिन हम को मोहर्रम है
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ज़ुल्फ़ें छोड़ीं हैं कि जोड़ा उस ने छोड़ा साँप का
यार आया है अहवाल-ए-दिल-ए-ज़ार दिखाओ
लाएगी गर्दिश में तुझ को भी मिरी आवारगी
काबे को जाता किस लिए हिन्दोस्तान से मैं
ज़ुल्फ़ों की तरह उम्र बसर हो गई अपनी
अदू ग़ैर ने तुझ को दिलबर बनाया
शौक़-ए-नज़्ज़ारा-ए-दीदार में तेरे हमदम
तू आप को पोशीदा ओ इख़्फ़ा न समझना
रुतबा-ए-कुफ़्र है किस बात में कम ईमाँ से
था मुक़द्दम इश्क़-ए-बुत इस्लाम पर तिफ़्ली में भी
अल्लाह के भी घर से है कू-ए-बुताँ अज़ीज़
मुज़्दा-बाद ऐ बादा-ख़्वारो दौर-ए-वाइज़ हो चुका