खुली है कुंज-ए-क़फ़स में मिरी ज़बाँ सय्याद
मैं माजरा-ए-चमन क्या करूँ बयाँ सय्याद
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फिर वही कुंज-ए-क़फ़स है वही सय्याद का घर
नीस्त बे-यार मुझ को हस्ती है
नहीं क़ौल से फ़ेल तेरे मुताबिक़
गले लगाएँ बलाएँ लें तुम को प्यार करें
आलम-पसंद हो गई जो बात तुम ने की
टूटे बुत मस्जिद बनी मिस्मार बुत-ख़ाना हुआ
मुझे दे के दिल जान खोना पड़ा है
काबे को जाता किस लिए हिन्दोस्तान से मैं
रक्खो ख़िदमत में मुझ से काम तो लो
नाज़-ए-बेजा उठाइए किस से
यार आया है अहवाल-ए-दिल-ए-ज़ार दिखाओ
फेर लाता है ख़त-ए-शौक़ मिरा हो के तबाह