ख़ाक छनवाती है दीवानों से अपने मुद्दतों
वो परी जब तक न कर ले दर-ब-दर मिलती नहीं
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नीस्त बे-यार मुझ को हस्ती है
रक्खो ख़िदमत में मुझ से काम तो लो
गले लगाएँ बलाएँ लें तुम को प्यार करें
ऐ परी हुस्न तिरा रौनक़-ए-हिंदुस्ताँ है
था मुक़द्दम इश्क़-ए-बुत इस्लाम पर तिफ़्ली में भी
दिल-लगी ग़ैरों से बे-जा है मिरी जाँ छोड़ दे
मज़ा पड़ा है क़नाअत का अहद-ए-तिफ़्ली से
नहीं क़ौल से फ़ेल तेरे मुताबिक़
हम जो कहते हैं सरासर है ग़लत
लाएगी गर्दिश में तुझ को भी मिरी आवारगी
क़ब्र पर होवें दो न चार दरख़्त
हों वो काफ़िर कि मुसलामानों ने अक्सर मुझ को