काफ़िर हूँ न फूँकूँ जो तिरे काबे में ऐ शैख़
नाक़ूस बग़ल में है मुसल्ला न समझना
Allama Iqbal
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अदू ग़ैर ने तुझ को दिलबर बनाया
आदमी पहचाना जाता है क़याफ़ा देख कर
क्या सुन चुके हैं आमद-ए-फ़स्ल-ए-बहार हाथ
मुझे दे के दिल जान खोना पड़ा है
आज इंकार न फ़रमाइए आप
आलम-पसंद हो गई जो बात तुम ने की
रिंदान-ए-इश्क़ छुट गए मज़हब की क़ैद से
क़ैस समझा मिरी लैला की सवारी आई
आँख से क़त्ल करे लब से जलाए मुर्दे
दिल-लगी ग़ैरों से बे-जा है मिरी जाँ छोड़ दे
दीद-ए-गुलज़ार-ए-जहाँ क्यूँ न करें सैर तो है
सातों फ़लक किए तह-ओ-बाला निकल गया