काबे को जाता किस लिए हिन्दोस्ताँ से मैं
किस बुत में शहर-ए-हिन्द के शान-ए-ख़ुदा न थी
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दिल-लगी ग़ैरों से बे-जा है मिरी जाँ छोड़ दे
चलती रही उस कूचे में तलवार हमेशा
क्या मिला अर्ज़-ए-मुद्दआ कर के
छुप के घर ग़ैर के जाया न करो
अल्लाह के भी घर से है कू-ए-बुताँ अज़ीज़
हों वो काफ़िर कि मुसलामानों ने अक्सर मुझ को
आ अंदलीब मिल के करें आह-ओ-ज़ारियाँ
फेर लाता है ख़त-ए-शौक़ मिरा हो के तबाह
क़ैस समझा मिरी लैला की सवारी आई
अदू ग़ैर ने तुझ को दिलबर बनाया
करीम जो मुझे देता है बाँट खाता हूँ
लैला मजनूँ का रटती है नाम