चाँदनी रातों में चिल्लाता फिरा
चाँद सी जिस ने वो सूरत देख ली
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फेर लाता है ख़त-ए-शौक़ मिरा हो के तबाह
किसी का कोई मर जाए हमारे घर में मातम है
हों वो काफ़िर कि मुसलामानों ने अक्सर मुझ को
सातों फ़लक किए तह-ओ-बाला निकल गया
आँख से क़त्ल करे लब से जलाए मुर्दे
रास्ता रोक के कह लूँगा जो कहना है मुझे
तौबा का पास रिंद-ए-मय-आशाम हो चुका
तोहमत-ए-हसरत-ए-पर्वाज़ न मुझ पर बाँधे
मौत आ जाए क़ैद में सय्याद
अगरी का है गुमाँ शक है मलागीरी का
इश्क़ कुछ आप पे मौक़ूफ़ नहीं ख़ुश रहिए
खुली है कुंज-ए-क़फ़स में मिरी ज़बाँ सय्याद