बुत करें आरज़ू ख़ुदाई की
शान है तेरी किबरियाई की
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सदमे गुज़रे ईज़ा गुज़री
था मुक़द्दम इश्क़-ए-बुत इस्लाम पर तिफ़्ली में भी
चाँदनी रातों में चिल्लाता फिरा
तबीअ'त को होगा क़लक़ चंद रोज़
करीम जो मुझे देता है बाँट खाता हूँ
उल्फ़त न करूँगा अब किसी की
हिज्र की शब हाथ में ले कर चराग़-ए-माहताब
क्या मिला अर्ज़-ए-मुद्दआ कर के
आलम-पसंद हो गई जो बात तुम ने की
दीद-ए-लैला के लिए दीदा-ए-मजनूँ है ज़रूर
मुझ बला-नोश को तलछट भी है काफ़ी साक़ी
हैं ये सारे जीते-जी के वास्ते