ऐ जुनूँ तू ही छुड़ाए तो छुटूँ इस क़ैद से
तौक़-ए-गर्दन बन गई है मेरी दानाई मुझे
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आफ़त शब-ए-तन्हाई की टल जाए तो अच्छा
ख़ाक छनवाती है दीवानों से अपने मुद्दतों
नीस्त बे-यार मुझ को हस्ती है
तू आप को पोशीदा ओ इख़्फ़ा न समझना
था मुक़द्दम इश्क़-ए-बुत इस्लाम पर तिफ़्ली में भी
आदमी पहचाना जाता है क़याफ़ा देख कर
ऐ शब-ए-फ़ुर्क़त न कर मुझ पर अज़ाब
अल्लाह के भी घर से है कू-ए-बुताँ अज़ीज़
रिंदान-ए-इश्क़ छुट गए मज़हब की क़ैद से
दिल किस से लगाऊँ कहीं दिलबर नहीं मिलता
हम जो कहते हैं सरासर है ग़लत
शौक़-ए-नज़्ज़ारा-ए-दीदार में तेरे हमदम