अगरी का है गुमाँ शक है मलागीरी का
रंग लाया है दुपट्टा तिरा मैला हो कर
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दीवानों से कह दो कि चली बाद-ए-बहारी
क़ब्र पर होवें दो न चार दरख़्त
उल्फ़त न करूँगा अब किसी की
क्या मिला अर्ज़-ए-मुद्दआ कर के
रक्खो ख़िदमत में मुझ से काम तो लो
किसी का कोई मर जाए हमारे घर में मातम है
छुप के घर ग़ैर के जाया न करो
मुझ बला-नोश को तलछट भी है काफ़ी साक़ी
फिर वही कुंज-ए-क़फ़स है वही सय्याद का घर
परों को खोल दे ज़ालिम जो बंद करता है
ज़माने में वो मह-लक़ा एक है
फेर लाता है ख़त-ए-शौक़ मिरा हो के तबाह