आ अंदलीब मिल के करें आह-ओ-ज़ारियाँ
तू हाए गुल पुकार मैं चिल्लाऊँ हाए दिल
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सातों फ़लक किए तह-ओ-बाला निकल गया
खुली है कुंज-ए-क़फ़स में मिरी ज़बाँ सय्याद
तबीअ'त को होगा क़लक़ चंद रोज़
हैरान सी है भचक रही है
ऐ जुनूँ तू ही छुड़ाए तो छुटूँ इस क़ैद से
अपने मरने का अगर रंज मुझे है तो ये है
चलती रही उस कूचे में तलवार हमेशा
टूटे बुत मस्जिद बनी मिस्मार बुत-ख़ाना हुआ
नाज़-ए-बेजा उठाइए किस से
वक़ार-ए-शाह-ए-ज़विल-इक्तदार देख चुके
चाँदनी रातों में चिल्लाता फिरा